पटना: राष्ट्रपिता महात्मा गांधी द्वारा स्थापित बिहार विद्यापीठ को अब तक किसी सरकार ने पूरा करने की कोशिश नहीं की। हर सरकार ने गांधी के विचारों और संकल्पों को भुनाने की कोशिश तो की, पर बापू के सपनों के एक शिक्षा संस्थान को चमकाने की जहमत नहीं उठाई। यह विद्यापीठ चल तो रही है, मगर जमा पैसों से मिले सूद (ब्याज) और बगीचे में लगे आम के पेड़ों से होने वाली आमदनी से।
गांधीवादी विचारक और सर्व सेवा संघ प्रकाशन के संयोजक रहे अशोक भारत का मानना है कि महात्मा गांधी ने अपने बिहार आगमन पर शिक्षा पर बहुत जोर दिया था। उन्होंने कहा कि गांधीजी ने अंग्रेजी शिक्षा व्यवस्था के विरोध के बाद छात्रों को भारतीय पद्धति में शिक्षा दिलाने के लिए तीन विद्यापीठों – काशी विद्यापीठ, गुजरात विद्यापीठ और बिहार विद्यापीठ की स्थापना की थी, लेकिन आज बिहार विद्यापीठ सिर्फ ‘नाम’ की रह गई है।
पटना में बिहार विद्यापीठ की स्थापना वर्ष 1921 में महात्मा गांधी ने की थी। उद्घाटन के मौके पर महात्मा गांधी, कस्तूरबा गांधी के साथ पटना पहुंचे थे। इस मौके पर स्वतंत्रता सेनानी ब्रजकिशोर प्रसाद, मौलाना मजहरुल हक और प्रथम राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद भी उपस्थित थे। 35 एकड़ भूखंड में फैले इस विद्यापीठ में मार्च, 1921 तक असहयोग आंदोलन से जुड़े करीब 500 छात्रों ने नामांकन कराया था और 20-25 हजार छात्र बिहार विद्यापीठ से संबद्ध संस्थाओं में शिक्षा ग्रहण कर रहे थे।
भारत कहते हैं, “बिहार विद्यापीठ की स्थापना भारतीय विशिष्टता, ग्राम्य अर्थव्यवस्था और देशभक्ति के विचारों पर केंद्रित शिक्षा को आगे बढ़ाने के लिए हुई थी। उस दौर में यहां कागज उद्योग, तेल घानी, आरा मशीन, ईंट भट्टा, चरखा, शिल्प शाखा सहित कई चीजों का प्रशिक्षण भी दिया जाता था।”
बिहार विद्यापीठ को जानने वाले लोग कहते हैं कि जब तक डॉ़ राजेंद्र प्रसाद यहां रहे, इस विद्यापीठ की स्थिति सही रही, मगर कालांतर में यह अपनी चमक खोती चली गई।
विद्यापीठ के सचिव डॉ़ राणा अवधेश सिंह कहते हैं, “सरकार से कहां कुछ मिलता है। केंद्र सरकार हो या राज्य सरकार, इस विद्यापीठ के लिए कभी अनुदान नहीं मिला। वर्तमान समय में ‘डिप्लोमा इन इलेमेंटरी एजुकेशन’ पाठ्यक्रम शुरू किया गया है। अगले वर्ष से बीएड पाठ्यक्रम शुरू होने की उम्मीद है।”
बिहार विद्यापीठ से जुड़े अजय आनंद बताते हैं कि ‘बिहार विद्यापीठ ट्रस्ट’ के तहत वर्तमान में ‘देशरत्न राजेंद्र प्रसाद शिक्षक प्रशिक्षण महाविद्यालय’ व ‘गांधी कम्प्यूटर शिक्षा एवं प्रसारण तकनीकी संस्थान’ चलाए जा रहे हैं। इसके अलावा इस ट्रस्ट के तहत राजेंद्र स्मृति संग्रहालय, ब्रजकिशोर स्मारक प्रतिष्ठान और मौलाना मजहरुल हक स्मारक पुस्तकालय भी चलाए जा रहे हैं।
राजेंद्र स्मृति संग्रहालय से जुड़े मनोज वर्मा ने आईएएनएस से कहा कि सरकारी उपेक्षाओं का दंश झेल रही बिहार विद्यापीठ के पास आमदनी का कोई खास जरिया नहीं है। विद्यापीठ में करीब 250 आम के पेड़ हैं। ये आम के पेड़ ही विद्यापीठ की आमदनी का जरिया हैं। प्रत्येक साल दीघा मालदह आम के इस बगीचे की नीलामी होती है और इससे जो राशि मिलती है, उससे विद्यापीठ के कर्मचारियों का वेतन और रखरखाव का कार्य होता है। पिछले साल भी करीब चार लाख रुपये में नीलामी हुई थी। विद्यापीठ के पास कुल 35 एकड़ जमीन है।
एक अधिकारी ने बताया कि केंद्र सरकार ने 2009-10 में राष्ट्रपति भवन की अनुशंसा पर बिहार विद्यापीठ को 10 करोड़ रुपये की राशि दी थी, जो विद्यापीठ का एक अन्य स्रोत है। उससे जो ब्याज आता है, उससे विद्यापीठ का काम चल रहा है। इस अनुदान के अलावा कोई अनुदान नहीं मिला।
विद्यापीठ से जुड़े एक कर्मचारी ने बताया कि इस राशि में से हाल के दिनों में करीब छह करोड़ रुपये की लागत से कई भवन बनाए गए हैं तथा कई भवनों का जीर्णोद्धार कराया गया है, जिससे ब्याज की राशि भी कम हो गई है। इस विद्यापीठ में 20 अधिकारी और कर्मचारी हैं और इसी राशि से वेतन से लेकर देखरेख व रखरखाव का कार्य होता है।
उल्लेखनीय है कि देश के राष्ट्रपति और बिहार के पूर्व राज्यपाल रामनाथ कोविंद बिहार विद्यापीठ को राज्य का ऐतिहासिक स्थान बताते हुए कह चुके हैं कि इस स्थान को तीर्थस्थल बनाना चाहिए। उन्होंने कहा था कि प्रथम राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद राष्ट्रपति भवन में रहने के बाद भी यहां दो कमरे की कुटिया में आकर रहे और उन्होंने अपनी अंतिम सांस यहीं ली थी।
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