लखनऊ : केंद्र की सत्ता में उत्तर प्रदेश की धमक भले ही सबसे ऊपर हो, लेकिन सेहत के मामले में यह राज्य देश में सबसे निचले पायदान पर खिसक गया है। डॉक्टरों की कमी और प्रति व्यक्ति स्वास्थ्य पर कम खर्च राज्य की खराब सेहत के प्रमुख कारण हैं।
उत्तर प्रदेश की खराब सेहत का राज हाल में नीति आयोग की रपट से उजागर हुआ है। आयोग की स्वास्थ्य रपट में उत्तर प्रदेश को सबसे निचले पायदान पर रखा गया है। केरल इस सूची में सबसे ऊपर है। आईएएनएस ने इसकी वजह जानने के लिए राज्य की सेहत की नब्ज टटोलने की कोशिश की, और इसमें जो तथ्य सामने आए, वे चौंकाने वाले हैं।
नेशनल हेल्थ प्रोफाइल 2015 के अनुसार, उत्तर प्रदेश में कुल 65,343 डॉक्टर पंजीकृत हैं, जिनमें से 52,274 राज्य में प्रैक्टिस करते हैं। राज्य की आबादी और डॉक्टरों की इस संख्या के अनुसार प्रत्येक डॉक्टर पर 3,812 मरीजों को देखने की जिम्मेदारी है। जबकि विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार, प्रत्येक डॉक्टर के जिम्मे 1000 मरीज होने चाहिए। यानी लगभग दो करोड़ आबादी वाले उत्तर प्रदेश में लगभग दो लाख डॉक्टरों की जरूरत है।
जहां तक सरकारी अस्पतालों का प्रश्न है, तो यहां बुरा हाल है। राज्य में कुल 18,732 डॉक्टरों के स्वीकृत पद हैं। लेकिन प्रांतीय चिकित्सा संवर्ग (पीएमएस) के अध्यक्ष डॉ़ सचिन वैश्य के अनुसार, वर्तमान में प्रदेश के सरकारी अस्पतालों में मात्र 13 हजार डॉक्टर कार्यरत हैं। जबकि राज्य की बढ़ती आबादी और मरीजों के आंकड़ों के लिहाज से यह संख्या लगभग 45 हजार होनी चाहिए। सरकारी अस्पतालों में न तो डॉक्टर बढ़ाए जा रहे हैं, न सुविधाएं ही। फिर आम जन को बेहतर इलाज कैसे मिलेगा।
वैश्य के अनुसार, राज्य में 856 ब्लाक स्तर के सामुदायिक स्वास्थ्य केन्द्र (सीएचसी) और 3621 प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र हैं। जबकि 160 जिला स्तर के अस्पताल हैं। कुल मिलाकर प्रदेश में छोटे-बड़े लगभग 5000 अस्पताल हैं। जिनमें मात्र 13,000 डॉक्टर ही तैनात हैं। जबकि इन अस्पतालों को संभालने के लिए लगभग 45,000 डॉक्टर होने चाहिए।
योगी आदित्यनाथ की सरकार जब राज्य में सत्ता में आई थी, तब सरकारी अस्पतालों में 7,000 डॉक्टरों की कमी थी। सरकार का कहना है कि उसने अबतक 2532 नए डॉक्टरों की नियुक्तियां की, लेकिन अभी भी लगभग पांच हजार डॉक्टरों की कमी है।
सरकारी अस्पतालों में मौजूद डॉक्टरों की संख्या के लिहाज से राज्य में प्रति डॉक्टर पर 19,962 मरीज का हिसाब बैठता है।
अब सुविधाएं, डॉक्टर और अस्पताल बढ़ाने के लिए बजट चाहिए। लेकिन बजट की स्थिति यह है कि राज्य में बनीं सरकारों ने स्वास्थ्य को हाशिए पर ही रखा है। वर्ष 2015-16 में कुल बजट का 3.98 प्रतिशत यानी 12,104 करोड़ रुपये स्वास्थ्य पर खर्च किए गए थे। वहीं 2017-18 में कुल बजट का 4.6 प्रतिशत स्वास्थ्य पर खर्चा किया गया।
नीति आयोग के 2017-18 के स्वास्थ्य सूचकांक के आधार पर इंडियास्पेंड द्वारा 21 जून, 2018 को प्रकाशित एक रपट के अनुसार, उत्तर प्रदेश एक व्यक्ति की सेहत पर हर साल मात्र 733 रुपये खर्च करता है, जबकि स्वास्थ्य सूचकांक में शीर्ष पर मौजूद केरल प्रति व्यक्ति प्रति वर्ष 1413 रुपये खर्च करता है।
डॉ़ वैश्य के अनुसार, सरकार जो नीतियां बना रही है, व्यावहारिक नहीं हैं। थके हुए सिपाहियों से जंग नहीं लड़ी जा सकती है। स्वास्थ्य सेवाओं को आकर्षक बनाने की जरूरत है। स्वास्थ्य सेवा के मुखिया को कमजोर करके एजेंसियों से काम लेना भी रैंक को कमजोर कर रहा है।
स्वास्थ्य सेवा से जुड़े एक अन्य पदाधिकारी ने नाम न जाहिर करने की शर्त पर बताया, उप्र की स्वास्थ्य सेवाओं की खस्ता हालत की प्रमुख वजह यहां पर हो रहे नए-नए प्रयोग हैं। अब मैनेजमेंट के तरीके से चिकित्सकों को चलाया जा रहा है। पुराने चिकित्सकों से काम लेने की बात कही जा रही है। नया एमबीबीएस तैयार होने के बाद बाहर की ओर रुख कर रहा है। पुराने लोग अनुभव में भले ही अच्छे हैं, परंतु अब नई तकनीक आ गई है। इसमें नए लोग ज्यादा अच्छा काम कर सकते हैं।
प्रांतीय चिकित्सा संवर्ग (पीएमएस) के पूर्व अध्यक्ष अशोक यादव हालांकि नीति आयोग की रपट को सही नहीं मानते। उन्होंने कहा, जो रिपोर्ट आई है, उसमें घोषित सेवाओं में तकनीक का मूल्यांकन नहीं किया गया है। महानिदेशक (शिक्षा चिकित्सा) की ओर से कहीं न कहीं कोई खामी रह गई होगी, जिसका यह परिणाम है। जो भी जिम्मेदार लोग हैं, अगर समय रहते इस कमी को बता देते तो शायद रिपोर्ट थोड़ी अच्छी हो जाती।
राज्य सरकार स्वास्थ्य की इस खस्ताहाली के लिए पूर्व की सरकारों को जिम्मेदार ठहरा रही है। राज्य सरकार के कैबिनेट मंत्री सिद्घार्थ नाथ सिंह का कहना है कि समस्याएं उन्हें विरासत में मिली हैं। उन्होंने कहा, कुछ चीजें हमें विरासत में मिली हैं। नीति आयोग की रिपोर्ट 2017 की है। उस समय हमारी सरकार बनी थी। थोड़ा समय लगेगा स्वास्थ्य व्यवस्थाएं ठीक हो जाएंगी।
लेकिन बसपा अध्यक्ष मायावती नीति राज्य की खराब सेहत के लिए मौजूदा राज्य सरकार को जिम्मेदार मानती हैं। उन्होंने कहा है, यह रिपोर्ट (नीति आयोग की) सरकार को लज्जित करने वाली है कि जन स्वास्थ्य के मामले में उत्तर प्रदेश देश का सबसे पिछड़ा राज्य है, जबकि केंद्र व उप्र में भाजपा की सरकारें हैं। ऐसी डबल इंजन वाली सरकार का क्या लाभ है?
उल्लेखनीय है कि नीति आयोग की स्वस्थ राज्य प्रगतिशील भारत शीर्षक से जारी रिपोर्ट में 21 बड़े राज्यों की सूची में उत्तर प्रदेश सबसे नीचे 21वें पायदान पर है। और केरल इस सूची में शीर्ष पर है।