इंद्र वशिष्ठ
जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी के छात्र अपनी मांगों को लेकर संसद भवन जाना चाहते थे। पुलिस ने उनको रोकने के लिए पूरी ताकत लगा दी। पुलिस ने संवेदनशीलता, इंसानियत को ताक पर रख दिया। वकीलों और नेताओं से पिटने और बदसलूकी के बावजूद जो पुलिस कमिश्नर और आईपीएस अफसर उनके खिलाफ एफआईआर तक दर्ज करने की हिम्मत नहीं दिखाते। उस पुलिस ने छात्रों पर लाठीचार्ज कर अपनी बहादुरी/ मर्दानगी का परिचय दिया। पुलिस की बर्बरता का आलम यह रहा कि उसने अंधे छात्रों पर भी रहम नहीं किया। नेत्रहीन छात्र को भी पीटने में संवदेनहीन पुलिस को ज़रा भी शर्म नहीं आई। हिंसा, आगजनी, तोड़ फोड़ और पुलिस अफसरों को भी बुरी तरह पीटने वाले वकीलों के सामने आईपीएस अफसर हाथ जोड़कर विनती करते हैं दूसरी ओर शांतिपूर्ण तरीके से संसद भवन जाना चाह रहे छात्रों पर पुलिस ज़ुल्म ढहाती है।
पुलिस कमिश्नर अमूल्य पटनायक जय सिंह मार्ग स्थित पुलिस के नए बने मुख्यालय में बैठते हैं। पुलिस के अत्याचार के खिलाफ दिव्यांग छात्र वहां जाकर प्रदर्शन करना चाहते थे। लेकिन पुलिस उनको आईटीओ स्थित पुराने पुलिस मुख्यालय ले गई। पुलिस के प्रवक्ता डीसीपी मंदीप सिंह रंधावा ने सात छात्रों के प्रतिनिधि मंडल को बातचीत के लिए बुलाया। छात्रों ने पुलिस अफसरों को पिटाई के वीडियो सौंपे। पुलिस ने मामले की जांच कराने और पुलिस कमिश्नर से हफ्ते के भीतर मुलाकात कराने का भरोसा दिया।
संवेदनहीन पुलिस कमिश्नर के पास दिव्यांग छात्रों से मिलने की फुर्सत नहीं थी। अमूल्य पटनायक में रत्ती भर भी इंसानियत होती तो दिव्यांग छात्रों से तुरंत मिलते और उनको भरोसा दिलाते कि पिटाई करने वाले पुलिस कर्मियों को बख्शा नहीं जाएगा। वैसे अमूल्य पटनायक से इंसानियत की उम्मीद करना बेमानी। क्योंकि यह पहले ऐसे कमिश्नर है जो वकीलों द्वारा पीटे गए अपने पुलिस वालों का हाल तक पूछने नहीं गए। उप-राज्यपाल के कहने के बाद ही पुलिस कमिश्नर अमूल्य पटनायक और डीसीपी मोनिका भारद्वाज पुलिस वालों का हाल पूछने गए थे।
सरकार चाहे भाजपा की हो या कांग्रेस की सभी पुलिस का इस्तेमाल अपने ग़ुलाम/ लठैत की तरह करते हैं। इसके लिए नेताओं से ज्यादा वह आईपीएस अफसर दोषी हैं जो महत्वपूर्ण पद पाने के लिए राजनेताओं के दरबारी/ गुलाम/ लठैत बन कर आम आदमी पर अत्याचार करने से भी पीछे नहीं हटते।
माना कि धारा 144 लागू होने के कारण प्रदर्शन करना मना है। लेकिन यह धारा भी तो पुलिस ही लगाती है। पुलिस धारा 144 हटा कर छात्रों को शांतिपूर्वक जाने भी तो दे सकती थी। ये प्रदर्शनकारी छात्र इस देश के ही तो बच्चे हैं और वह अपनी आवाज़ अपने प्रधानमंत्री, सांसदों, नेताओं तक नहीं पहुंचाएंगे तो किसके सामने अपना दुखड़ा रोएंगे ? संसद भवन पहुंच कर अगर छात्र कानून हाथ में लेने की कोशिश करते तो पुलिस उनके खिलाफ कार्रवाई कर सकती थी। छात्र जाना चाहते थे लेकिन पुलिस ने रोका झड़प हुई और इस कारण दिल्ली के अनेक इलाकों में ट्रैफिक जाम हो गया। पांच मेट्रो स्टेशन के गेट बंद कर देने से लोगों को परेशानी का सामना करना पड़ा।
पुलिस की काबिलियत का पता इस बात से चलता है कि वह बड़े से बड़े प्रदर्शन के दौरान कानून व्यवस्था बनाए रखने के लिए कितना अच्छा इंतजाम करती है। लेकिन अब तो पुलिस आसान रास्ता अपनाती है धारा 144 लगा कर लोगों के इकट्ठा होने पर ही रोक लगा देती है। सुरक्षा कारणों के नाम पर मेट्रो के गेट बंद कर या सड़क पर यातायात बंद कर लोगों को परेशान करती है। पुलिस जब धारा 144 लगा कर लोगों को उनके प्रदर्शन के हक़ से वंचित करने की कोशिश करती है तभी टकराव होता है।
लोकतंत्र में अपनी समस्याओं और मांगों को अपनी सरकार के सामने शांतिपूर्ण तरीके से रखा जाता है। लेकिन यहां तो उल्टा ही हिसाब है सरकार चाहे किसी भी दल की हो संसद सत्र के दौरान संसद भवन के आसपास धारा 144 लगा कर लोगों को वहां प्रदर्शन करने से ही रोक दिया जाता है। अब ऐसे में कोई कैसे अपनी सरकार तक अपनी फरियाद पहुंचाए। पुलिस कानून हाथ में लेने वाले ताकतवर लोगों और खास समुदाय के खिलाफ कार्रवाई नहीं करती।
तीस हजारी कोर्ट परिसर में वकीलों ने आगजनी की तोड़ फोड़ और अफसरों समेत पुलिस वालों को बुरी तरह पीटा। उत्तरी जिला पुलिस उपायुक्त मोनिका भारद्वाज हिसंक भीड़ पर काबू पाने के लिए बल प्रयोग करने की बजाए हाथ जोड़कर विनती कर रही थी लेकिन वकीलों ने विनती मानने की बजाय उनके साथ बदसलूकी की। मोनिका भारद्वाज ने वकीलों के खिलाफ बदसलूकी की रिपोर्ट तक दर्ज नहीं कराई। इस मामले में विशेष आयुक्त संजय सिंह और उत्तरी जिले के अतिरिक्त उपायुक्त हरेंद्र सिंह का बिना किसी जांच रिपोर्ट के तबादले कर दिए गए। इस मामले में पुलिस कमिश्नर अमूल्य पटनायक की भूमिका को लेकर पुलिस में जबरदस्त रोष है। पुलिस वालों ने अपना गुस्सा पुलिस मुख्यालय के बाहर प्रदर्शन कर के भी व्यक्त किया।