इंद्र वशिष्ठ
खरबूजा चाकू पर गिरे या चाकू खरबूजे पर कटता खरबूजा ही है इसी तरह वोट किसी भी दल को देंं पिसती जनता ही है। सभी दल और नेता एक जैसे ही है जनता के पास कोई विकल्प ही नहीं है। ऐसे में जनता के लिए एक तरफ़ खाई और दूसरी तरफ़ कुंआ ही है।
कंपनी राज –
समंदर पार से ईस्ट इंडिया कंपनी के नाम से अंग्रेज व्यापारी बन कर भारत आए और राजा बन देश पर कब्जा कर लिया। देश को लूट कर खोखला करके चले गए। ईस्ट इंडिया कंपनी तो चली गई। लेकिन पिछले करीब तीन दशकों में भारत में देसी कंपनियों का राज शुरु हो गया। अंतर सिर्फ इतना है कि उद्योगपति खुद राज करने की बजाए राजनैतिक दलों के अपने कारिंदों के माध्यम से राज कर रहे हैं। हालात अगर ऐसे ही रहे तो वह दिन दूर नहीं जब देश में हरेक क्षेत्र में निजी कंपनियों यानी उद्योगपतियों का ही राज होगा।
नेता बन गए राजा-
इसके लिए नेताओं के साथ साथ वह लोग भी जिम्मेदार हैं जो अपनी बुद्धि , विवेक को ताक पर रख कर नेताओं पर अंधा विश्वास करके जमकर व्यर्थ की बहसबाजी में उलझे रहते हैं। इन लोगों को इतनी सी बात समझ नहीं आती कि राजनेता शब्द का अर्थ ही यह है कि राज करने वाला नेता है। राज करना मतलब शासन करना। नेता सत्ता पाते ही शासक यानी राजा बन जाता है तो वह मतदाता यानी जनता को प्रजा ही समझता है। ऐसी मानसिकता के कारण वह इस अहंकार/भ्रम में रहता है कि जो वह कहे या करे उसे आंख मूंद कर मान लेना ही प्रजा का धर्म है।
उद्योगपति हिताय-
सरकार किसी भी दल की हो यह सच्चाई है कि उसके लिए सिर्फ़ उद्योगपतियों के हित ही सर्वोपरि होते हैं। राजनेता लोगों को इस भ्रम में रखता हैं कि वह जनता का सेवक है और लोग भी इस भ्रम में जीते हैं कि नेता ही उनका असली शुभचिंतक है। जबकि नेता असली सेवक उन उद्योगपतियों का ही होता है जिनके पैसे के दम पर वह चुनाव लड़ता और सत्ता पाता हैं। यह स्वाभाविक भी है कि जो सत्ता पाने में मदद करेगा तो उसके हितों की रक्षा वह नेता करेगा ही। यह सच्चाई है कि उद्योगपति/ व्यापारी बिना अपने किसी आर्थिक फायदे के किसी भी दल या नेता को पैसा देता नहीं है।
अपने अपने नेताओं को पहचानों-
किसान कानून के ताजा मामले से यह बात आसानी से साफ समझी जा सकती है। आज भाजपा सरकार जिन कानूनों को किसानों की भलाई वाला बता रही है उसी के नेता अरुण जेटली और सुषमा स्वराज के संसद में दिए बयान ऐसे कानून का पुरजोर विरोध वाले थे। इसी तरह जो कांग्रेस आज किसान कानून का विरोध कर रही है वह सत्ता में रहते खुद भी ऐसे कानून चाहती थी। इससे यह स्पष्ट है कि सत्ता में कोई भी दल हो वह उद्योगपतियोंं के हित के लिए काम करता है। सरकार की नीयत और नीति अगर सही होती तो उसे किसानों की कथित भलाई वाले इस कानून को बनाने से पहले उनसे विचार विमर्श तो करना चाहिए था। सरकार के किसानों की कथित भलाई वाले कानून को जब किसान ही नहीं चाहते तो सरकार क्यों जबरन इस कानून को उन पर थोपने पर अड़ी हुई है। सरकार के इस तरह अड़ने से भी साफ पता चलता है कि वह किसानों की बजाए अपने खास उद्योगपतियों की ही हितैषी है। अब इतने दिनों से किसान जाड़े मेंं दिल्ली सीमा पर पडे़ हुए। सरकार अगर किसानों की हितैषी होती तो यह नौबत नहीं आती। सरकार ने तो इस जाड़े में किसानों पर पानी की बौछार, आंसू गैस और लाठीचार्ज जैसे अत्याचार तक किए।
लोग नादानी छोड़,आईना दिखाएं-
असल में लोग भी या तो नादान हैं या दोहरे चरित्र वाले हैं जो अपने दोहरे चरित्र वाले दोगले नेताओं के पीछे अंध भक्त बन कर एक दूसरे से कुतर्क कर अपनी ऊर्जा नष्ट करने में लगे रहते हैं। कोई व्यक्ति चाहे किसी भी दल से जुड़ा हुआ है। उसे किसी भी मुद्दे पर आंख मूंद कर समर्थन या विरोध करने से पहले अपने अपने दलों के नेताओं के ही उन बयानों को देखना चाहिए जो उन्होंने विपक्ष की भूमिका में उन मुद्दों पर दिए थे। इसी तरह लोगों को अपने अपने नेताओं के उन बयानों को देखना चाहिए जो उन्होंने सत्ता में रहते हुए उस मुद्दे पर दिए थे। सत्ता में आने पर उन मुद्दों पर पलटी मारने या विपरीत आचरण करने वाले राजनेताओं से उनके दल के समर्थकों को ही जवाब तलब करना चाहिए। अभी तो हालात यह हैं की भाजपा के नेताओं ने विपक्ष में रहते जिन मुद्दों/ नीतियों पर कांग्रेस का विरोध किया था। सत्ता में आने पर भाजपा ने उन्हें ही लागू कर दिया जैसे जीएसटी,आधार आदि।
पेट्रोल के दामों और महंगाई आदि मुद्दों को लेकर जमकर कांग्रेस के खिलाफ प्रदर्शन करने वाली भाजपा अब बेशर्मी से दामों में वृद्धि और महंगाई आदि को जायज ठहराती है। होना तो यह चाहिए कि भाजपा के कार्यकर्ताओं को अपने नेताओं से सवाल करना चाहिए कि वह अब कांग्रेस की नीतियों को ही लागू कर रहे हैं तो पहले विरोध क्यों कर रहे थे। इसी तरह कांग्रेस के कार्यकर्ताओं को भी अपने नेताओं से सवाल करना चाहिए कि जिन मुद्दों पर वह अब विरोध कर रहे हैं उन मुद्दों पर सत्ता में रहते तो उनके विचार बिल्कुल अलग थे। लेकिन अफसोस दोनों दलों के कार्यकर्ता गुलामों की तरफ भेड़ चाल में अपने अपने नेताओं के पीछे आंख मूंद कर चलते हैं। अपने अपने दल के नेताओं से जवाब तलब करने की बजाए दूसरे दल के नेताओं/ कार्यकर्ताओं से सवाल पूछने में जुटे रहते है।
लोकतंत्र में सरकार को लोगों के प्रति जवाबदेह बनाए रखने के लिए सत्ता से सवाल जरूर पूछना चाहिए वरना सत्ताधारी निरंकुश हो जाते हैं और निरंकुश नेताओं/सरकार का खामियाजा पूरे देश को भुगतना पड़ता है। कार्यकर्ता या समर्थक अगर अपने दल के नेताओं को ही आईना दिखाने लग जाएं तो ही नेता जनहित/ लोक कल्याणकारी नीतियां, नियम/ कायदे/योजनाएं बनाएंगे। गली, मोहल्ले, चौपाल या सोशल मीडिया पर भाजपा और कांग्रेस से जुड़े लोग कुतर्क करने में जुटे रहते हैं। एक दूसरे को गलत या देशद्रोही तक साबित करते हैं। ऐसे सभी लोग 2014 के लोकसभा चुनाव से पहले देश के हरेक मुद्दे पर दिए गए नरेंद्र मोदी के ही बयानों के वीडियो देख लेंं और कांग्रेसियों को भी अपने नेताओं के बयान देखने चाहिए।
दोनों दलों के नेताओं के बयानों को देखने से यह बिल्कुल स्पष्ट हो जाएगा कि ये सब दोहरे चरित्र वाले हैं जो सत्ता पाने से पहले जिस नीति/मुद्दे का विरोध करते हैं सत्ता पाते ही उसी नीति को खुद अपनाने से जरा भी गुरेज नहीं करते हैं। कथनी और करनी में अंतर रखने वाले ऐसे नेताओं के पीछे लोगों का आपस में लड़ना दिखाता है कि या तो वह अनाडी है या वह भी दोहरे चरित्र वाले हैं।
कंपनी राज का नमूना जियो –
लोग अगर इतना भी कर ले तो उन्हें साफ समझ आ जाएगा कि सभी दल और नेता एक जैसे हैं और उन सब का एकमात्र लक्ष्य केवल उद्योगपतियों को लाभ पहुंचाना होता है। अंग्रेजों की ईस्ट इंडिया कंपनी की तरह उद्योगपतियों की कंपनियां किस तरह लोगों की जेब से पैसा निकालती हैं। इसे जियो मोबाइल मामले से आसानी से समझा जा सकता हैं। शुरू में जियो ने कई महीने तक मुफ्त सेवा दी जिससे लोगों ने दूसरी टेलिकॉम कंपनियों को छोड़ कर जियो का कनेक्शन ले लिया। इससे दूसरी कंपनियां बंद होने के कगार पर पहुंच गई। इसके बाद जियो ने बेतहाशा दाम बढ़ा दिए। लोगों के पास ओर कोई विकल्प नहीं होने के कारण वह जियो की मनमानी के आगे मजबूर हो गए।
जियो द्वारा एकदम से सौ-डेढ़ सौ रुपए तक बढ़ा दिए जाते हैं। क्या कभी सरकार ने जियो या दूसरी कंपनियों को ऐसा करने से रोकने की कोशिश की ? सरकार चाहे किसी भी दल की हो वह कंपनियों को मनमानी दर बढ़ाने से कभी नहीं रोकती। दूसरी ओर कंपनियां एक झटके में ही इस तरह से दाम बढ़ा कर अपना मुनाफा हजारों करोड़ रुपए बढ़ा लेती है।
उद्योगपतियों के रहमों करम पर देश-
किसान कानून से भी सबसे बड़ा खतरा यहीं हैं कि सिर्फ एक-दो उद्योगपतियों के हाथ में पूरे देश का अनाज,फल, सब्जी का भंडार आ जाएगा फिर वह मनमानी दर पर उसे बेचेगें। पारंपरिक मंडियां खत्म हो जाने से किसान अपना अनाज औने पौने दामों में इन उद्योगपतियों को बेचने को मजबूर हो जाएगा। गिने चुने उद्योगपतियों के हाथों में देशभर के अनाज आदि का भंडार होने से वह अपना ज्यादा से ज्यादा मुनाफा कमाने के हिसाब से बाजार को नियंत्रित करेंगे। इसका असर सिर्फ किसानों पर ही नहीं उपभोक्ताओं पर भी पडे़गा। बाजार में कई कंपनियां हो तो उनमें प्रतियोगिता होगी जिसका फायदा उपभोक्ताओं को होता है लेकिन अगर एक ही कंपनी का एकछत्र राज बाजार में होगा तो वह उपभोक्ताओं से मनमाना दाम वसूलेगी ही।
उद्योगपति घाटे का सौदा नहीं करता-
सरकारी उपक्रमों/कंपनियों को बेचा जाता है। उद्योगपति उन कंपनियों को खरीद लेते हैं। क्या कोई उद्योगपति पागल हैं कि वह घाटे का सौदा करेगा। व्यापारी हमेशा मुनाफे वाले सौदे में ही हाथ डालता है इसलिए वह उन कंपनियों को खरीदता है जिसे सरकार बीमार या घाटे वाली बताती है। असल में सरकार एक तरह से उद्योगपतियों के हाथों में ही सब कुछ सौंप कर उन्हें जमकर बिना रोकटोक/ प्रतियोगिता के कमाने का मौका उपलब्ध करवा देती है।
अगर सरकार की नीयत साफ होती तो वह एमटीएनएल और बीएसएनएल की सेवाओं को ही इतना बेहतर करती कि लोग उनका ही इस्तेमाल करते। लेकिन ऐसा होता तो उद्योगपति पैसा कैसे कमाते ? इसलिए पहले सरकारी उपक्रमों की कंपनियों की सेवा/ सुविधा इतनी खराब कर दी जाती हैं कि लोग निजी कंपनियों की सुविधाएं लेने को मजबूर हो जाते हैं। यहीं हाल सरकारी स्कूल और अस्पताल का भी है। इसलिए लोग निजी अस्पतालों और स्कूलों के हाथों लुटने को मजबूर हैं।
सरकार की काबिलियत पर सवाल-
सरकार कितनी काबिल है इसका पता इस बात से चलता है कि सरकारी उपक्रमों की सेवाओं को वह कितना बेहतर करती हैं। लोगों को बेहतर सुविधाएं देने की बजाए सरकारी उपक्रमों को बेचने से तो सरकार और नौकरशाहों के नाकाबिल होने का ही पता चलता है। हालांकि निजीकरण के लिए कांग्रेस भी जिम्मेदार है लेकिन अब सत्ताधारी भाजपा उससे भी चार कदम आगे चल रही हैं। हर बात के लिए कांग्रेस को कोसने वाली भाजपा खुद को देशभक्त होने का दावा करती है लेकिन सब कुछ उद्योगपतियों को सौंप कर वह देश में कंपनी राज स्थापित करती दिख रही है। कंपनियों का तो सिर्फ एकमात्र उद्देश्य ज्यादा से ज्यादा मुनाफा कमाना ही होता है।
कोसने की बजाए काम करें-
पिछले 6 साल से सत्ता में होने के बावजूद भाजपा कांग्रेस को ही हर बात के लिए जिम्मेदार ठहराने में लगी हुई है। कांग्रेस को कोसने की बजाए भाजपा के पास तो अब मौका है कि वह ऐसे कार्य करके दिखाए जिससे साफ पता चले कि इस सरकार की नीयत और नीति वाकई लोक कल्याण की ही है। वरना अभी तक तो ऐसा ही लगता है कि दोनों दलों में कोई फर्क नहीं है। दोनों के लिए लोक कल्याण की बजाए अपने अपने उद्योगपतियों का कल्याण ही सर्वोपरि है।
भाजपा का कोसना कांग्रेस को जिंदा रखेगा –
कांग्रेस ने जो किया उसका खामियाजा तो वह आज भुगत ही रही हैं। लेकिन कांग्रेस के पाप गिनाने से भाजपा के पाप कम नहीं हो जाएंगे। कांग्रेस अपने नेताओं/ कर्मों से ऐसी हालत में पहुंच गई कि उसका दोबारा जल्दी उभरना मुश्किल है। लेकिन एक बात तय है कि जिस तरह से भाजपा दिन रात कांग्रेस को कोसती हैं उससे इतना तय है कि भाजपा ही कांग्रेस को चर्चा में बनाए रख कर उसे राजनैतिक प्रतिद्वंद्वी के रुप में जिंदा रखेगी। मोदी या भाजपा द्वारा कांग्रेस की इतनी ज्यादा चर्चा करने से लगता है कि भाजपा के सिर पर कांग्रेस का भूत अभी तक सवार है। उसकी नजर में कहीं न कहीं कांग्रेस की अहमियत या भय बरकरार है। वरना जिस कांग्रेस को उसके अपने नेताओं ने डुबाने में कसर नहीं छोड़ी उसका इतना जिक्र करके उसे इतनी अहमियत भाजपा क्यों दे रही हैं। वैसे ऐसा ही चलता रहा तो भाजपा का यह कोसना ही एक दिन लोगों में कांग्रेस के प्रति फिर से सहानुभूति/ समर्थन भी पैदा कर सकता है।