संदीप ठाकुर
नई दिल्ली। हिंदी के सारे बड़े राज्याें में 2014 में भाजपा के सीटाें की
संख्या पीक पर थी। इसलिए इस बार हर जगह सीट संख्या कम होना स्वभाविक है।
यह अंदेशा भाजपा के नेताओं से लेकर संध पदाधिकारियाें तक काे है। लेकिन
पार्टी के रणनीतिकाराें काे उम्मीद है कि सीटाें की भरपाई पूर्वाेत्तर
राज्याें से हाे जाएगी । खासताैर से पश्चिम बंगाल,ओड़िशा व असम सहित आठ
राज्यों की 25 सीटों में भी भाजपा अधिसंख्य सीटें जीतने की उम्मीद कर रही
है।
इन इलाके में वोटिंग हो चुकी है। भाजपा के अनुमान व हकीकत में फर्क साफ
साफ दिख रहा है।
जानकाराें ने अरुणाचल में भाजपा की एक सीट कम होने का अनुमान लगाया है।
त्रिपुरा में दोनों सीटें जीतने की भाजपा उम्मीद पूरी होती नहीं दिख रही
है। नगालैंड और मेघालय में कांग्रेस ने दम दिखाया है। नागरिकता कानून के
विरोध के कारण क्षेत्रीय पार्टियों ने आरपार का मूड बनाया है और लोगों ने
उसके विरोध में वोटिंग की है। भाजपा असम की अपनी 7 सीटें बचा ले तो बहुत
बड़ी बात होगी। भाजपा के चुनाव प्रबंधक पश्चिम बंगाल में 23 सीटें जीतने
का दावा कर रहे हैं। 10-12 सीटें तो हर हाल में पार्टी पक्की मान कर चल
रही है। पर ये सीटें कौन सी हैं,यह नेताओं काे नहीं पता । दार्जिलिंग
सीट भाजपा गोरखा जनमुक्ति मोर्चा के समर्थन से जीत रही थी पर इस बार
तृणमूल कांग्रेस ने वहां भी भाजपा की राह कठिन कर दी है। तभी ताे वहां के
मौजूदा सांसद एसएस अहलूवालिया को दार्जिलिंग छोड़ कर दुर्गापुर जाना पड़ा
है। आसनसोल से बाबुल सुप्रियो फिर जीतेंगे या नहीं इस बारे में भी भाजपा
में संशय है। वहां ममता बनर्जी ने फिल्म स्टार और निवर्तमान सांसद मुनमुन
सेन को उनके खिलाफ खड़ा कर दिया है। सनद रहे कि चुनाव शुरू होने से पहले
ही भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष दिलीप घोष ने कहा था कि पार्टी के पास हर सीट
पर लड़ने के लिए उम्मीदवार नहीं हैं। जब उम्मीदवार ही नहीं हैं तो 23
सीटें जीतेंगे कहां से?
भाजपा का वोट प्रतिशत बढ़ेगा इसमें काेई शक नहीं है, लेकिन सीटें शायद ही
बढ़ें। 2014 के लोकसभा चुनाव में भाजपा सभी 42 सीटों पर लड़ी थी और दो
सीटों पर जीती थी। उसको 17 फीसदी वोट मिले थे। 2009 में भाजपा को 11.66
फीसदी वोट मिले थे यानी उसके वोट में पांच फीसदी से कुछ ज्यादा का इजाफा
हुआ था। पर दो साल बाद हुए विधानसभा चुनाव में भाजपा का वोट गिर कर फिर
वापस पुराने स्तर से भी नीचे आ गया। 2016 के विधानसभा चुनाव में
भाजपा 294 में से 291 सीटों पर लड़ी और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी व
पार्टी अध्यक्ष अमित शाह ने पूरा जोर भी लगाया। पर भाजपा को 2014 के
लोकसभा चुनाव से कम वोट मिले। उसे 2016 में 10.2 फीसदी वोट मिला। 291 में
से उसके सिर्फ तीन विधायक जीते और सिर्फ चार सीटों पर वह दूसरे स्थान पर
रही। दूसरी ओर ममता बनर्जी की पार्टी को 2014 के लोकसभा चुनाव के मुकाबले
2016 के विधानसभा में छह फीसदी ज्यादा वोट मिले। लोकसभा में तृणमूल को 39
फीसदी वोट मिले थे, जबकि 2016 के विधानसभा में 45 फीसदी वोट मिले।
विधानसभा चुनाव में कांग्रेस और लेफ्ट मोर्चा मिल कर लड़े थे और दोनों को
32 फीसदी वोट मिले थे।
लेकिन 2016 के बाद बहुत कुछ बदला है। जमीनी स्तर पर भाजपा मजबूत हुई है।
यह भी कहा जा रहा है कि कांग्रेस और लेफ्ट का जो नुकसान है वह भाजपा का
फायदा है। पर असलियत यह नहीं है। इसे पिछले दिनों हुए दो उपचुनावों से
समझा जा सकता है। पश्चिम बंगाल की उलूबेरिया लोकसभा सीट पर तृणमूल
कांग्रेस के सुल्तान अहमद के निधन के बाद उपचुनाव हुआ था। 2014 के चुनाव
में तृणमूल के सुल्तान अहमद को इस सीट पर 48.12 फीसदी वोट मिला था,
सीपीएम को 31 और भाजपा को 12 फीसदी वोट मिला था। 2018 के उपचुनाव में
तृणमूल की सजदा अहमद को 62 फीसदी वोट मिला और भाजपा 23 फीसदी पर पहुंच
गई। यानी भाजपा को 11 फीसदी वोट का और तृणमूल को 14 फीसदी वोट का फायदा
हुआ। दूसरी ओर सीपीएम को 20 फीसदी वोट का नुकसान हुआ। इसी तरह 2018 में
नोआपाड़ा विधानसभा सीट पर उपचुनाव हुआ तो तृणमूल का वोट 42 से बढ़ कर 54
फीसदी हो गया और भाजपा का वोट 13 से बढ़ कर 20 फीसदी पहुंचा। इस सीट पर
कांग्रेस और लेफ्ट के वोट में 20 फीसदी की कमी आई। जाहिर है कि कांग्रेस
और लेफ्ट का जो वोट घट रहा है उसका बड़ा हिस्सा तृणमूल के खाते में जा
रहा है और छोटा हिस्सा भाजपा के खाते में। सो, भाजपा के वोट तो बढ़ सकते
हैं पर सीटों की संख्या बढ़ने में संदेह है।
कमोबेश यहीं हाल ओड़िशा का है। भाजपा वहां 10 सीटें जीतने की उम्मीद कर
रही थी। पर चुनाव नजदीक आने पर भाजपा ने यह उम्मीद छोड़ दी और बीजू जनता
दल के नेता नवीन पटनायक के साथ सद्भाव दिखाना शुरू कर दिया। यह भी चुनाव
बाद की हकीकत में हुआ। धर्मेंद्र प्रधान को मुख्यमंत्री के रूप में पेश
किया जाना था पर वह भी नहीं किया गया। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पुरी
सीट से लड़ने वाले थे पर दिल्ली में चुनाव लड़ कर हारे संबित पात्रा को
वहां भेज दिया। भुवनेश्वर की प्रतिष्ठित सीट के लिए हाल ही में आईएएस से
इस्तीफा देने वाली अपराजिता सारंगी को उतारा गया तो केंद्रपाड़ा सीट पर
बीजद से आए बैजयंत पांडा को टिकट दिया गया।
2014 में नरेंद्र मोदी की सुनामी में भी लोकसभा और विधानसभा दोनों
चुनावों में बीजू जनता दल को 44 फीसदी के करीब वोट मिले हैं। लोकसभा में
उसे 44 फीसदी वोट मिला और उसने 21 में से 20 सीटें जीतीं। कांग्रेस को 26
और भाजपा को 21 फीसदी वोट मिले। विधानसभा में भी बीजद को 44 फीसदी वोट
मिले और कांग्रेस को 25 व भाजपा को 18 फीसदी वोट मिले। यानी लोकसभा में
कांग्रेस और भाजपा दोनों मिल कर बीजद के बराबर पहुंचे तो विधानसभा में
दोनों का वोट मिल कर भी बीजद के बराबर नहीं हुआ।