इंद्र वशिष्ठ
दिल्ली के कई इलाकों में 3-4 दिनों तक दंगाइयों का राज़ रहा। दंगाई पिस्तौल, पेट्रोल बम, लाठी-डंडों और पत्थर से लोगों पर हमला करते रहे। मकान, दुकान, स्कूल और धार्मिक स्थल में आग लगाते रहे। दंगाइयों ने दिल्ली पुलिस के हवलदार समेत चालीस से ज्यादा लोगों की जान ले ली। तीन दिन तक दंगों को रोकने में पुलिस विफल रही। लेकिन इस मामले में लापरवाही बरतने के आरोप में किसी भी आईपीएस अफसर या एसएचओ के खिलाफ कोई विभागीय कार्रवाई भी अब तक नहीं की गई है। किसी भी इलाके में दंगे होना स्थानीय थाना पुलिस और खुफिया तंत्र की कार्यप्रणाली पर सवाल खड़े कर देता है। दंगें होने के बाद कई दिनों तक उस पर काबू ना कर पाना आईपीएस अधिकारियों की पेशेवर काबिलियत पर सवालिया निशान खड़े कर देता है।
पुलिस का काम लोगों की जान-माल की रक्षा करने का होता है पर पुलिस अपना यह काम करने में बुरी तरह फेल हो गई।
दंगें के कारण डीसीपी दीपक मिश्रा को हटाया गया-
साल 1992 में बाबरी विध्वंस के बाद सीलमपुर, जाफराबाद और वेलकम इलाके में दंगे हुए थे। दंगें होना और उन काबू पाने में देरी होना पुलिस अफसरों की पेशेवर काबिलियत पर सवाल खड़े कर देता है। इसलिए उस समय उत्तर पूर्वी जिले के तत्तकालीन डीसीपी दीपक मिश्रा का तबादला कर दिया गया था। कहा तो यहां तक जाता है कि तत्कालीन पुलिस कमिश्नर मुकुंद बिहारी कौशल ने दीपक मिश्रा के भविष्य/ नौकरी को ख़राब होने से बचा लिया था। वर्ना दीपक मिश्रा की नौकरी ख़तरे में पड़ सकती थी। मुकुंद बिहारी कौशल ने दीपक मिश्रा को न केवल बचाया बल्कि उसे पश्चिम जिला में तैनात कर दिया।
पुलिस अफसरों के मुताबिक असल में हुआ यह बताते हैं कि उस समय पुलिस ने लापरवाही और गैर जिम्मेदाराना तरीके से इतनी अंधा धुंध गोलियां चलाई थी कि उसका जवाब देना भारी पड़ गया था। गोलियों का हिसाब किताब दिखाने के लिए काफी मशक्कत करनी पड़ी थी। बताया जाता है कि एक आईपीएस अफसर ने तो रोनी सूरत बना कर साफ़ मना कर दिया था कि गोलियों का हिसाब पूरा करने के लिए उसका नाम गोली चलाने वालों में शामिल न किया जाए। दक्षिण भारतीय यह आईपीएस कुछ समय पहले ही विशेष आयुक्त के पद से रिटायर हुए हैं।
शाहीन बाग और जामिया में धरना प्रदर्शन करने वालों पर गुंडों द्वारा गोलियां चलाईं गई। लोगों की सुरक्षा में लापरवाही बरतने के लिए तत्तकालीन डीसीपी चिन्मय बिस्वाल को हटा दिया गया।
क्या 45 लोगों की जान जाना गंभीर मामला नहीं है?
या सिर्फ प्रधानमंत्री की जान की ही कीमत है ? आम आदमी की जान की कोई कीमत नहीं? आम आदमी की जान की रक्षा करने में पुलिस की यह जबरदस्त चूक है। दंगें में एक पुलिसकर्मी के शहीद होने से पुलिस का मनोबल प्रभावित होता है। 45 लोगों के मरने का आम लोगों को भी गहरा सदमा लगता है। भड़काने वाले भाषण देने वाले नेताओं के खिलाफ पुलिस अफसर अगर पहले ही कार्रवाई कर देते तो दंगे होने से रोके जा सकते थे।