इंद्र वशिष्ठ
पुलिस कोरोना महामारी के भयंकर संकट के दौर में अन्नदाता पर भी जाडे़ में पानी की बौछार, आंसूगैस और डंडे चला कर अपनी बहादुरी दिखाने में लगी हुई है। इस दौर में भी पुलिस का पारंपरिक संवेदनहीन चरित्र और चेहरा ही दिखाई दे रहा है।
कमिश्नर/आईपीएस की काबिलियत पर सवालिया निशान।
आंसू गैस,पानी की बौछार लाठीचार्ज करने के बाद ही क्या सरकार और कमिश्नर सच्चिदानंद श्रीवास्तव को यह बात समझ आई कि अब किसानों को दिल्ली में आने दिया जाए। पुलिस कई दिनों तक किसानों के साथ जोर आजमाइश क्यों कर रही थी ? किसान को वैसे तो सभी अन्नदाता अन्नदाता कहते रहते हैं लेकिन अन्नदाता को अपनी ही सरकार तक गुहार लगाने के लिए पहुंचने ना देना यह कैसा लोकतंत्र है ?
अन्न चाहिए अन्नदाता नहीं-
कहावत है कि गुड खाएंं और गुलगुले से परहेज़। इसी तरह अन्न तो सबको चाहिए पर अन्नदाता से परहेज़ है। अन्नदाता को फरियाद लेकर दिल्ली दरबार जाने तक से रोका जाता है। वैसे धरना प्रदर्शन पहले की ही तरह सरकार की नाक के नीचे बोट क्लब/ विजय चौक पर ही होना चाहिए। तभी तो सरकार के कान पर जूं रेंगेगी।
कमिश्नर हालात बिगाड़ै, किसान का आईपीएस बेटा संभालै-
दो साल पहले भी गांधी जयंती के दिन उत्तर प्रदेश के किसान दिल्ली जाना चाहते थे लेकिन पुलिस ने उन्हें गाजीपुर सीमा पर रोका और इसी तरह के अत्याचार किए। ऐसे आईपीएस अफसर भी होते हैं जो किसानों के दिल्ली आने की सूचना मिलते ही पुलिस कमिश्नर से कहने लग जाते हैं कि किसानों के आने से दिल्ली में हाहाकार मच जाएगा ,कानून व्यवस्था खराब हो जाएगी। कमिश्नर को ऐसे अफसरों की बातें खुद के लिए भी अनुकूल लगती है। इसलिए वह किसानों को दिल्ली में घुसने से रोकने के लिए जुट जाते हैं। जबकि होना तो यह चाहिए कि सरकार तक अपनी आवाज़ पहुंचाने के लिए किसान या कोई भी जाना चाहे तो उसे वहां तक आसानी से पहुंचाने की पुलिस को ऐसी अच्छी व्यवस्था करनी चाहिए जिससे यातायात भी सामान्य, सुचारु रहे और किसी को कोई परेशानी भी नहीं हो। ऐसा करने से ही अफसरों की पेशेवर काबिलियत का पता चलेगा।
अब तो हालात यह हैं कि सत्ता के इशारे पर पुलिस प्रदर्शनकारियों को सरकार तक पहुंचने से रोकने का गलत तरीका अपनाती हैं जिसके कारण टकराव होता है। ऐसे में हालात बिगाड़ने के लिए पूरी तरह कमिश्नर/आईपीएस अफसर ही जिम्मेदार है। हालात बिगड़ने के बाद कमिश्नर किसान परिवार से आए आईपीएस अफसरों को किसानों को समझाने के लिए आगे कर देते हैं। जैसे अब उत्तरी रेंज के संयुक्त पुलिस आयुक्त एस एस यादव के माध्यम से किसानों को समझाने के लिए अपील करवाई गई। जिसमें उन्होंने बकायदा यह भी बताया कि वह भी किसान परिवार के ही हैं। इसी तरह गांधी जयंती पर पुलिस और किसानों के टकराव के बाद तत्कालीन संयुक्त पुलिस आयुक्त रवींद्र सिंह यादव को किसानों को समझाने की जिम्मेदारी दी गई। जिसके बाद किसान घाट आए और शांतिपूर्वक वापस चले गए। किसान परिवार से आए आईपीएस अफसरों की बात/राय अगर कमिश्नर पहले ही ले लेंं तो हालात बिगड़ने की नौबत ही नहीं आए।
धूर्त राजनेता किसानों पर अत्याचार भी किसान पुत्र पुलिसकर्मियों से करवा देते हैं। पुलिस में ज्यादा संख्या किसान पुत्रों की ही है।
सत्ता की लठैत बनी पुलिस –
सत्ता यानी मंत्री अगर प्रदर्शनकारियों को रोकने का आदेश पुलिस को देता है तो काबिल कमिश्नर को तो सरकार को यह सच्चाई बतानी चाहिए कि रोकने से तो हालात ज्यादा बिगड़ जाएगी। इसलिए सरकार को तुरंत प्रदर्शनकारियों को बुला कर उनसे बात करनी चाहिए। लेकिन अफसोस इस बात का हैं कि नाकाबिल कमिश्नर और आईपीएस में सरकार के सामने यह सच्चाई कहने की हिम्मत ही नहीं होती है। इसलिए आईपीएस सत्ता के लठैत बन कर लोगों को रोकने में ही सारी ताकत लगा देते हैं। आंसू गैस, लाठीचार्ज और कभी कभी तो गोली भी चला देते हैंं। यह सब करके हार जाने के बाद ही वह लोगों को दिल्ली में आने की इजाज़त देते हैं। पुलिस की इसी हरकत के कारण वह सत्ता के लठैत कहलाते हैं और लोगों में पुलिस के प्रति सम्मान खत्म हो जाता है।
सभी सरकार एक सी-
सरकार चाहे भाजपा की हो या कांग्रेस की सभी पुलिस का इस्तेमाल अपने ग़ुलाम/ लठैत की तरह करते हैं। इसके लिए नेताओं से ज्यादा वह कमिश्नर/ आईपीएस अफसर दोषी हैं जो महत्वपूर्ण पद पाने के लिए राजनेताओं के दरबारी/ गुलाम/ लठैत बन कर आम आदमी पर अत्याचार करने से भी पीछे नहीं हटते।
धारा 144 लगाना, लोगों की आवाज दबाना-
माना कि धारा 144 लागू होने के कारण प्रदर्शन करना मना है। लेकिन यह धारा भी तो पुलिस ही लगाती है। प्रदर्शनकारी इस देश के ही तो होते हैं और वह अपनी आवाज़ अपने प्रधानमंत्री, सांसदों, नेताओं तक नहीं पहुंचाएंगे तो किसके सामने अपना दुखड़ा रोएंगे ?
अगर वहां पहुंच कर कोई कानून हाथ में लेने की कोशिश करे तो ही पुलिस को उनके खिलाफ कार्रवाई करनी चाहिए।
समाधान की बजाए टकराव के रास्ते पर पुलिस –
किसान जाना चाहते थे लेकिन पुलिस ने रोका झड़प हुई और इस कारण ट्रैफिक जाम भी हो गया। नाकाबिल अफसरों के कारण ही हालात बिगडते हैं। दिल्ली वालों को परेशानियों का सामना करना पड़ता है। इसके लिए कमिश्नर ही पूरी तरह जिम्मेदार होता हैं लेकिन आम लोग समझते हैं कि किसानों या अन्य प्रदर्शनकारियों के कारण उन्हें परेशानी का सामना करना पड़ा। प्रदर्शनकारी तो अपने लोकतांत्रिक हक का लोकतांत्रिक तरीकों से शांतिपूर्वक इस्तेमाल करना चाहते हैं। सरकार के इशारे पर पुलिस ही उनके अधिकारों का हनन करती हैं।
प्रदर्शन का हक़ छीनती पुलिस-
पुलिस अफसरों की काबिलियत का पता इस बात से चलता है कि बडे़ से बड़े प्रदर्शन के दौरान कानून व्यवस्था बनाए रखने के लिए कितना अच्छा इंतजाम करते है। लेकिन अब तो पुलिस आसान रास्ता अपनाती है धारा 144 लगा कर लोगों के इकट्ठा होने पर ही रोक लगा देती है। सुरक्षा कारणों के नाम पर मेट्रो के गेट बंद कर या सड़क पर यातायात बंद कर लोगों को परेशान करती है। पुलिस जब धारा 144 लगा कर लोगों को उनके प्रदर्शन के हक़ से वंचित करने की कोशिश करती है तभी टकराव होता है। लोकतंत्र में अपनी समस्याओं और मांगों को अपनी सरकार के सामने शांतिपूर्ण तरीके से रखा जाता है। लेकिन यहां तो उल्टा ही हिसाब है सरकार चाहे किसी भी दल की हो संसद सत्र के दौरान संसद भवन के आसपास धारा 144 लगा कर लोगों को वहां प्रदर्शन करने से ही रोक दिया जाता है। अब ऐसे में कोई कैसे अपनी सरकार तक अपनी फरियाद पहुंचाए।
छात्रों पर जुल्म ढहाया-
जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी के छात्र पिछले साल अपनी मांगों को लेकर संसद भवन जाना चाहते थे। पुलिस ने उनको रोकने के लिए पूरी ताकत लगा दी। वकीलों और नेताओं से पिटने और बदसलूकी के बावजूद जो पुलिस कमिश्नर और आईपीएस अफसर उनके खिलाफ एफआईआर तक दर्ज करने की हिम्मत नहीं दिखाते। उस पुलिस ने छात्रों पर लाठीचार्ज कर अपनी बहादुरी/ मर्दानगी का परिचय दिया। पुलिस की बर्बरता का आलम यह रहा कि उसने अंधे छात्रों पर भी रहम नहीं किया। नेत्रहीन छात्र को भी पीटने में संवदेनहीन पुलिस को ज़रा भी शर्म नहीं आई। हिंसा, आगजनी, तोड़ फोड़ और पुलिस अफसरों को भी बुरी तरह पीटने वाले वकीलों के सामने आईपीएस अफसर हाथ जोड़कर विनती करते हैं दूसरी ओर शांतिपूर्ण तरीके से संसद भवन जाना चाह रहे छात्रों पर भी पुलिस जुल्म ढहाती है।
आम आदमी को पीटने वाली बहादुर पुलिस- खुद के पिटने पर रोने वाली पुलिस लोगों को पीट कर खुश-
यह वही पुलिस है जिसे पिछले साल वकीलों ने जमकर पीटा। जिसकी डीसीपी मोनिका भारद्वाज द्वारा वकीलों के आगे डर कर हाथ जोड़ने और जमात सहित दुम दबाकर कर भागने की वीडियो पूरी दुनिया ने देखी। यह वही पुलिस है जिसे वकीलों ने पीटा तो अनुशासन भूल कर अपने परिवारजनों के साथ पुलिस मुख्यालय पर अपना दुखड़ा रोने जमा हो गई थी।
उस समय आम आदमी पुलिस के पिटने पर खुश हुआ था उसकी मुख्य वजह यह है कि आम आदमी पुलिस के दुर्व्यवहार, भ्रष्टाचार, अत्याचार और अकारण लोगों को पीटने से त्रस्त हैं। इसलिए वकीलों ने पीटा तो आम आदमी ने कहा कि पुलिस के साथ ठीक हुआ। हालांकि कानून के ज्ञाता वकीलों द्वारा ही कानून हाथ में लेना बहुत ही शर्मनाक है। वकीलों के खिलाफ तो डीसीपी मोनिका भारद्वाज ने अपने साथ हुई बदसलूकी की खुद एफआईआर तक दर्ज कराने की हिम्मत नहीं दिखाई। हिंसा, आगजनी और पुलिस अफसरों तक को बुरी तरह पीटने वाले वकीलों पर तो इस कथित बहादुर पुलिस ने आत्म रक्षा में भी पलट कर वार नहीं किया। उस समय जिस पुलिस के हाथों में लकवा मार गया था वहीं पुलिस आम आदमी पर खुल कर हाथ छोड़ती है।
IPS खाकी को ख़ाक मत मिलाओ-
यह पुलिस आम आदमी पर ही डंडे बरसा कर बहादुरी दिखा सकती। वरना इस पुलिस के आईपीएस कितने बहादुर है यह सारी दुनिया ने उस वीडियो में देखा है जब भाजपा सांसद मनोज तिवारी ने उत्तर पूर्वी जिले के तत्कालीन डीसीपी अतुल ठाकुर को गिरेबान से पकड़ा और एडिशनल डीसीपी राजेंद्र प्रसाद मीणा को खुलेआम धमकी दी। तब पुलिस कमिश्नर और इन आईपीएस अधिकारियों की हिम्मत मनोज तिवारी के खिलाफ एफआईआर तक दर्ज करने की नहीं हुई।
जागो IPS जागो –
किसी के भी पिटने पर किसी को ख़ुश नहीं होना चाहिए लेकिन वकीलों ने पुलिस को पीटा तो लोग खुश हुए। आईपीएस अफसरों को इस पर चिंतन कर पुलिस का व्यवहार सुधारने की कोशिश करनी चाहिए। वरना ऐसी आशंका है कि एक दिन ऐसा भी हो सकता है कि पुलिस के अत्याचार से परेशान हो कर आम आदमी भी डंडे बरसाने वाली पुलिस पर आत्म रक्षा में पलटवार करने लगेगा। इस सबके लिए सिर्फ और सिर्फ आईपीएस अफसर ही जिम्मेदार होंगे। पुलिस को अपनी बहादुरी और मर्दानगी दिखाने की हिम्मत और शौक है तो अपराध करने, कानून तोड़ने वाले नेताओं/रईसों और गुंडों पर दिखाएं। गुंडों, शराब माफिया तक से पिटने वाली पुलिस द्वारा वर्दी के नशे में आम शरीफ़ आदमी पर अत्याचार करना बहादुरी नहीं होती। पुलिस कानून हाथ में लेने वाले ताकतवर लोगों और खास समुदाय के खिलाफ कार्रवाई नहीं करती।
कमजोर को पीटती और ताकतवर से पिटती पुलिस–
आईपीएस अफसर भी गुलाम की तरह पुलिस का इस्तेमाल करते है।–
देश की राजधानी दिल्ली में ही पुलिस जब नेता के लठैत की तरह काम करती है तो बाकी देश के हाल का अंदाजा लगाया जा सकता है। 4-6-2011 को रामलीला मैदान में रामदेव को पकड़ने के लिए सोते हुए औरतों और बच्चों पर तत्कालीन पुलिस आयुक्त बृजेश कुमार गुप्ता और धर्मेंद्र कुमार के नेतृत्व में पुलिस ने लाठीचार्ज और आंसू गैस का इस्तेमाल कर फिरंगी राज को भी पीछे छोड़ दिया। उस समय अफसरों ने पेशेवर निष्ठा,काबलियत को ताक पर रख कर लठैतों की तरह लोगों पर अत्याचार किया
धर्म ना देखो अपराधी का —
रामलीला मैदान की बहादुर पुलिस को 21 जुलाई 2012 को सरकारी जमीन पर कब्जा करके मस्जिद बनाने की कोशिश करने वाले गुंड़ों ने दौड़ा-दौड़ा कर पीटा। माहौल बिगाड़ने के लिए जिम्मेदार बिल्डर नेता शोएब इकबाल के खिलाफ पुलिस ने पहले ही कोई कार्रवाई नहीं की थी। जिसका नतीजा यह हुआ कि गुंड़ों ने पुलिस को पीटा, पथराव और आगजनी की। लेकिन अफसरों ने यहां गुंड़ों पर भी रामलीला मैदान जैसी मर्दानगी दिखाने का आदेश पुलिस को नहीं दिया। इस तरह आईपीएस अफसर भी नेताओं के इशारे पर पुलिस का इस्तेमाल कहीं बेकसूरों को पीटने के लिए करते है तो कहीं गुंड़ों से भी पिटने देते है। अफसरों की इस तरह की हरकत से निचले स्तर के पुलिसवालों में रोष पैदा हो जाता है।
बुखारी का भी बुखार क्यों नहीं उतारती सरकार —दिल्ली पुलिस ने जामा मस्जिद के इमाम को सिर पर बिठाया हुआ है। कोर्ट गैर जमानती वारंट तक भी जारी करती रही हैं लेकिन दिल्ली पुलिस कोर्ट में झूठ बोल कह देती है कि इमाम मिला नहीं। जबकि इमाम पुलिस सुरक्षा में रहता है। मध्य जिले में तैनात रहे कई डीसीपी तक इमाम अहमद बुखारी को सलाम ठोकने जाते रहे हैं। तत्कालीन आईपीएस कर्नल सिंह ने ही इमाम की सुरक्षा कम करने की हिम्मत दिखाई थी। शंकराचार्य जैसा व्यक्ति जेल जा सकता है तो इमाम क्यों नहीं ? एक मस्जिद के अदना से इमाम को सरकार द्वारा सिर पर बिठाना समाज के लिए खतरनाक है। इमाम को भला पुलिस सुरक्षा देने की भी क्या जरूरत है। कानून सबके लिए बराबर होना चाहिए। अहमद बुखारी के खिलाफ अब तक कितने आपराधिक मामले दर्ज हुए हैं इसका भी खुलासा सरकार को करना चाहिए।