नई दिल्ली : सर्वोच्च न्यायालय ने मंगलवार को अवैध प्रवासियों को शरणार्थी का दर्जा दिए जाने के संबंध में विस्तृत सुनवाई करने पर सहमति व्यक्त की।
दो रोहिंग्या पुरुषों ने समुदाय के 40,000 सदस्यों को उनके मूल देश म्यांमार वापस भेजने की केंद्र की प्रस्तावित योजना के खिलाफ शीर्ष अदालत का रुख किया।
सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई की अध्यक्षता वाली एक पीठ के सामने तर्क दिया कि उनकी पहली प्रार्थना निर्वासन के संबंध में किसी भी प्रस्ताव को रोकना है। इसी के साथ सामुदायिक अधिकारों के बारे में अंतर्राष्ट्रीय कानूनों को लागू करना है।
मेहता ने तर्क दिया कि प्रमुख सवाल समुदाय की सटीक पहचान के बारे में था। चाहे वे शरणार्थी हों या अवैध प्रवासी हों, और क्या उन्हें शरणार्थी के रूप में मान्यता दी जा सकती है।
अदालत ने कहा कि वह इस मुद्दे की जांच करेगी। इसके बाद अदालत ने इसमें शामिल पक्षों से अगली सुनवाई में बहस पूरी करने को कहा।
याचिका में कहा गया है कि 2016 में यूएनएचसीआर ने भारत में 40,000 रोहिंग्याओं को पंजीकृत किया और शरणार्थी पहचानपत्र प्रदान किए।
याचिकाकर्ताओं के वकील ने तर्क दिया कि अंतर्राष्ट्रीय कानून का अनुपालन शरणार्थियों को उस भूमि के निर्वासन के पक्ष में नहीं करता है, जहां उन्हें और उनके परिवारों के लिए खतरा हो।
अदालत ने याचिकाकर्ताओं के वकील को शरणार्थी का दर्जा देने के लिए औपचारिक दिशानिर्देशों और नीतिगत फैसलों की पहचान करने के लिए कहा।
याचिकाकर्ताओं का प्रतिनिधित्व करने वाले वरिष्ठ अधिवक्ता कॉलिन गोंसाल्विस ने कहा कि यूएनएचसीआर यह पहचानने के लिए व्यापक जांच करता है कि क्या लोगों के दूसरे देश में जाने का कारण आर्थिक हित है या उन्हें फांसी का डर है। इसके बाद ही शरणार्थी का दर्जा दिया गया था।
म्यांमार में राखाइन राज्य छोड़कर भागे रोहिंग्या समुदाय के बहुत से लोग जम्मू, हैदराबाद, हरियाणा, उत्तर प्रदेश, दिल्ली-एनसीआर और राजस्थान में बसे हैं।
याचिकाओं में कहा गया है कि संविधान यह गारंटी देता है कि भारतीय राज्य को प्रत्येक मनुष्य के जीवन और स्वतंत्रता की रक्षा करनी चाहिए, चाहे वह नागरिक हों या न हों।
इसके अलावा राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने प्रस्तावित निर्वासन पर केंद्र को नोटिस भी जारी किया था।