प्रदीप शर्मा
कोरोना महामारी और प्रवासियों की समस्याओं से संबंधित जनहित याचिकाओं पर सुनवाई कर रही गुजरात हाईकोर्ट की पीठ में अचानक बदलाव किए जाने को लेकर वकीलों, विशेषज्ञों एवं अन्य लोगों ने चिंता जाहिर की है। जस्टिस जेबी पर्दीवाला और इलेश जे. वोरा की पीठ ने बीते कुछ दिनों में राज्य सरकार को उत्तरदायी ठहराने वाले कई महत्वपूर्ण निर्देश दिए थे. कोर्ट ने स्वास्थ्य सेवाओं को लेकर गुजरात की भाजपा सरकार को बेहद कड़ी फटकार लगाई थी और अहमदाबाद सिविल अस्पताल को ‘कालकोठरी’ की संज्ञा दी थी।
हालांकि अब पीठ में परिवर्तन किए जाने के कारण इन मामलों की सुनवाई मुख्य न्यायधीश विक्रम नाथ की अगुवाई वाली पीठ करेगी, जिसमें जस्टिस जेबी पर्दीवाला बतौर जूनियर जज शामिल होंगे। शुरुआत में कोविड-19 स्थिति पर स्वत: संज्ञान लेते हुए मुख्य न्यायाधीश नाथ और जस्टिस आशुतोष जे. शास्त्री की पीठ ने 13 मार्च को जनहित याचिका दायर किया था. बीच में किसी कारणवश जस्टिस विक्रम नाथ को अपने गृहनगर इलाहाबाद जाना पड़ा, जिसके बाद ये मामला जस्टिस जेबी पर्दीवाला और इलेश वोरा की पीठ के पास आ गया।
गुजरात हाई कोर्ट ने उन मीडिया रिपोर्ट्स पर संज्ञान लिया जिसमें बताया गया था कोरोना मरीजों को उचित इलाज नहीं मिल रहा है और अहमदाबाद में प्रवासी भूखे सड़कों पर पड़े हुए हैं और उन्हें उनके घर भी नहीं जाने दिया जा रहा है। इस पर कोर्ट ने कहा था, ‘हर दिन सैकड़ों की संख्या में प्रवासी मजदूर अपने बच्चों के साथ राज्य के अलग-अलग हिस्सों में देखे जाते हैं, खासकर हाईवे पर. उनकी स्थिति एकदम दयनीय है. आज की तारीख तक वे अमानवीय और भयावह स्थिति में रह रहे हैं.’
पीठ ने कहा कि समाज का गरीब वर्ग कोरोना से चिंतित नहीं है, वो इस बात से चिंतित है कि कहीं भूख के कारण उसकी मौत न हो जाए। इसके बाद पर्दीवाला-वोरा की पीठ उस समय तेजी से सुर्खियों में तब आ गई जब उन्होंने 22 मई को एक निर्देश में कहा कि अहमदाबाद सिविल अस्पताल ‘कालकोठरी जैसे हैं या इससे भी बदतर’ हैं. पीठ ने मामले की सुनवाई की अगली तारीख 29 मई तय की और कहा कि राज्य सरकार इस बार उचित कार्ययोजना के साथ उनके कोर्ट में आए।
कोर्ट ने चेतावनी देते हुए कहा, ‘यदि हम राज्य सरकार की रिपोर्ट से खुश नहीं हुए तो हमें मजबूर होकर सिविल अस्पताल के डॉक्टरों के साथ वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग करना पड़ेगा और पता करना होगा की उनकी क्या समस्याएं हैं.’ इन टिप्पणियों से राज्य सरकार को इस कदर झटका लगा कि उन्होंने एक आवेदन दायर कर कोर्ट से इस आधार पर अपना कथन वापस लेने को कहा कि इससे आम जनता का अस्पताल में विश्वास खत्म हो जाएगा और मेडिकल स्टाफ भी हतोस्ताहित होंगे।
बावजूद इसके पर्दीवाला-वोरा की पीठ अपने बयान को बरकरार रखा और 25 मई को राज्य सरकार की याचिका को खारिज कर दिया. पीठ ने अस्पताल के एक रेजिडेंट डॉक्टर द्वारा भेजे गए एक गुमनाम पत्र का संज्ञान लेने को चुनौती देने वाली राज्य सरकार की आपत्तियों को भी खारिज कर दिया। इसके अलावा पीठ ने जजों द्वारा औचक निरीक्षण करने को लेकर अस्पतालों को तैयार रहने को भी कहा। अब जबकि बेंच बदल दी गई है इस कारण बुधिजीविओ को डर है कि पिछली पीठ ने जो गंभीरता दिखाई थी, शायद नई पीठ में वो बात न दिखे।
इन लोगों का डर किसी हद तक सही भी हैं आप को याद होगा ये पहला मौका नहीं जब इस तरह अचानक ये कदम उठाया गया है। इससे पहले दिल्ली दंगों के समय ऐसा ही एक अप्रत्याशित बदलाव किया गया था जब जस्टिस मुरलीधर का अचानक ट्रांसफर कर दिया गया था।
सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश ‘मास्टर ऑफ रोस्टर’ होते हैं, यानी कि सीजेआई ही ये तय करते हैं कि कौन सी पीठ किस मामले को सुनेगी। इस सिद्धांत का पालन आमतौर पर न्यायिक अनुशासन और शिष्टाचार को बनाए रखने के लिए किया जाता है, लेकिन एक विचार यह भी है रोस्टर बनाने की शक्ति का प्रयोग इस तरीके से किया जाना चाहिए जो उचित, न्यायसंगत और पारदर्शी हो।