प्रदीप शर्मा
फ्री बी के मुद्दे पर सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि हम फैसला करेंगे कि फ्री बी क्या है. अब यह परिभाषित करना होगा कि फ्रीबी क्या है, जनता के पैसे को कैसे खर्च किया जाए. हम परीक्षण करेंगे. क्या सार्वभौमिक स्वास्थ्य देखभाल, पीने के पानी तक पहुंच, शिक्षा तक पहुंच को फ्रीबी माना जा सकता है? हमें यह परिभाषित करने की आवश्यकता है कि एक फ्रीबी क्या है. क्या हम किसानों को मुफ्त में खाद देने से रोक सकते हैं, मुफ्त शिक्षा, सार्वभौमिक शिक्षा का वादा, चिंता सार्वजनिक धन खर्च करने का सही तरीका है. क्या कोई मुफ्त लंच हो सकता है. सुझावों में से एक है कि राज्य के राजनीतिक दलों को मतदाताओं से वादे करने से नहीं रोका जा सकता है. इस मामले की अगली सुनवाई सोमवार को होगी।
इस मामले में आम आदमी पार्टी ने चुनावी भाषण और वादों को समीक्षा के दायरे से बाहर रखने की मांग की है. उन्होंने कहा है कि चुनाव से पहले किए गए वादे, दावे और भाषण बोलने की आजादी के तहत आते हैं. उन पर रोक कैसे लगाई जा सकती है? अनिर्वाचित उम्मीदवारों द्वारा दिए गए चुनावी भाषण भविष्य की सरकार की बजटीय योजनाओं के बारे में आधिकारिक बयान नहीं हैं और न ही हो सकते हैं. वास्तव में वे नागरिक कल्याण के विभिन्न मुद्दों पर किसी पार्टी या उम्मीदवार के वैचारिक बयान मात्र हैं, जो तब नागरिकों को सचेत करने के लिए हैं ताकि वो मतदान में फैसला कर सकें कि किसे वोट देना है. एक बार निर्वाचित सरकार बनती है तो ये उसका काम है कि वह चुनाव के दौरान प्रस्तावित विभिन्न योजनाओं या जो वादे किए गए उनको संशोधित करने, स्वीकार करे, अस्वीकार करे या बदल दें. लिहाजा विशेषज्ञ समिति को चुनाव प्रचार के दौरान किए गए वादों पर विचार करने से अलग रखा जाए. सरकार बनने के बाद कि नीति पर ही विशेषज्ञ विचार करें, क्योंकि सरकार ही किसी नीति, वायदे और परियोजना को स्वीकार या अस्वीकार कर सकती है।
सुप्रीम कोर्ट में हलफनामा दाखिल किया है. इस प्रकार नीतियों के दायरे पर किसी भी विधायी मार्गदर्शन के अभाव में जिसे ‘फ्री बी’ माना जा सकता है या चुनावी अभियानों में ऐसी नीतियों का वादा करने के परिणामों पर इस संबंध में एक संभावित विशेषज्ञ निकाय द्वारा लिया गया कोई भी फैसला संवैधानिक रूप से बिना प्राधिकरण के होगा. इस तरह के निकाय के लिए तैयार की जा सकने वाली संदर्भ की शर्तों में चुनावी भाषणों को शामिल नहीं किया जाना चाहिए. वास्तव में वर्तमान कार्यवाही का मुद्दा, चुनावी भाषण को लक्षित करना है और इसकी सुनवाई करना एक जंगली हंस का पीछा से ज्यादा कुछ नहीं होगा. राजनीतिक पार्टियों के चुनावी भाषण पर हमला करके राजकोषीय घाटे के मुद्दों को संबोधित करने की कोशिश सही नहीं है. ये चुनावों की लोकतांत्रिक गुणवत्ता को नुकसान पहुंचाएगा. राजकोषीय उत्तरदायित्व के हित में अदालत को सरकारी खजाने से धन के वास्तविक खर्च के बिंदु पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए, क्योंकि ये बजटीय मामला है. ये सुनवाई चुनी हुई सरकारों द्वारा खर्च को लेकर उन उपायों तक सीमित हो, जो वास्तविक लक्ष्य को लक्षित करके राजकोषीय घाटे को कम कर सकती है. इस मामले में एक्सपर्ट बॉडी का गठन हो तो वो भारत के संविधान द्वारा समर्थित विकास के व्यापक समाजवादी-कल्याणवादी मॉडल के भीतर हो.कांग्रेस चुनाव के दौरान मुफ्त चुनावी घोषणों के समर्थन में कांग्रेस पार्टी सुप्रीम कोर्ट पहुंची है।
मध्यप्रदेश कांग्रेस की नेता जया ठाकुर ने सुप्रीम कोर्ट में अर्जी दाखिल की है. याचिका में कहा कि सत्तारूढ़ दल सब्सिडी प्रदान करने के लिए बाध्य हैं. याचिका में कहा कि कमजोर वर्गों के उत्थान के लिए योजनाओं को फ्रीबीज़ नहीं कहा जा सकता. जया ठाकुर ने बीजेपी नेता और वकील अश्विनी कुमार उपाध्याय की याचिका का विरोध किया है. जया ठाकुर ने खुद को मामले में पक्षकार बनाने की मांग की है. याचिका में कहा है कि सरकार चलाने वाले सत्तारूढ़ दलों का कर्तव्य है कि वह समाज के कमजोर वर्गों का उत्थान करें और योजनाएं बनाएं और इसके लिए सब्सिडी प्रदान करें। याचिका में कहा कि नागरिकों को दी जाने वाली सब्सिडी और रियायतें संवैधानिक दायित्व और लोकतंत्र के लिए आवश्यक हैं. DMK तमिलनाडु की सत्तारूढ़ डीएमके सरकार ने मुफ्त ‘रेवड़ी’ के मामले में कहा है कि मुफ्त ‘रेवड़ी’ का दायरा बहुत व्यापक है और “ऐसे कई पहलू हैं, जिन पर विचार करने की आवश्यकता है. इसमें कहा गया है कि यह प्रथा किसी राज्य पर वित्तीय बर्बादी ला सकती है।
और इधर केंद्र सरकार ने फ्री बी कल्चर का कड़ा विरोध किया है. SG तुषार मेहता ने कहा है कि अब इस मुफ्तखोरी की संस्कृति को आर्ट के स्तर तक ऊंचा कर दिया गया है और अब चुनाव केवल इसी आधार पर लड़ा जाता है कि यदि मुफ्त उपहारों को लोगों के कल्याण के लिए माना जाता है, तो यह एक आपदा की ओर ले जाएगा. ये एक खतरनाक स्तर है. कोर्ट को इसमें दखल देना चाहिए और नियम तय करने चाहिए. अब इस मुफ्तखोरी की संस्कृति को कला के स्तर तक ऊंचा कर दिया गया है और अब चुनाव केवल जमीन पर लड़ा जाता है. यदि मुफ्त उपहारों को लोगों के कल्याण के लिए माना जाता है तो यह एक आपदा की ओर ले जाएगा।
चीफ जस्टिस एन वी रमना ने कहा था कि अर्थव्यवस्था का पैसा लुटाना और लोगों का कल्याण, दोनों को संतुलित करना होगा इसलिए यह बहस होनी चाहिए. कोई ऐसा होना चाहिए जो विचारों को दृष्टि में रखे .सीजेआई ने कहा कि हम किसी भी लोकतांत्रिक विरोधी कदम की को छूने नहीं जा रहे जैसे राजनीतिक पार्टियों को डी रजिस्टर करने का मामला है।