इंद्र वशिष्ठ
दो नवंबर को तीस हजारी में कानून के राज की तो मौत हो गई। इसके साथ ही पुलिस मिश्नर और आईपीएस अधिकारियों की मर चुकी इंसानियत और संवेदनहीनता की मौत भी उजागर हो गई है इससे पता चलता है कि दिल्ली पुलिस अनाथ हो गई है। पुलिस अफसरों की नजर में अपने मातहतों का मूल्य सिर्फ हुक्म बजाने वाले गुलाम जितना हैं। पुलिस बल का मुखिया अपने पिटे हुए जवानों का हाल जानने तक नहीं जाएं तो यही कहा जाएगा कि पुलिस बल बेसहारा और अनाथ हो गया है।
वकीलों की पिटाई से भी कहीं ज्यादा पुलिस बल में इसी बात का दुःख और गुस्सा है कि उनके कप्तान यानी पुलिस कमिश्नर अमूल्य पटनायक ने उनके साथ मारपीट करने वाले वकीलों के खिलाफ कार्रवाई करने का अपना कानूनी दायित्व निभाने की हिम्मत तो दिखाई ही नहीं। उन्होंने घायल पुलिस वालों से हमदर्दी जताने और पुलिस वालों के हाल पूछने जाने की इंसानियत भी नहीं दिखाई। पुलिस बल का यह रोष पुलिस मुख्यालय के बाहर कमिश्नर और अन्य आला अफसरों के सामने फूट पड़ा। जिसके बाद 7 नवंबर को पुलिस कमिश्नर और डीसीपी मोनिका भारद्वाज पुलिस वालों का हाल जानने गए।
मातहत वफ़ा करके भी तन्हा रह गए-
पुलिस कमिश्नर ही नही उत्तरी जिला की डीसीपी मोनिका भारद्वाज तो अपने आपरेटर संदीप का हाल जानने तक नहीं गई। आपरेटर संदीप ने अपना यह दर्द अपने साथी के साथ फोन पर बयां किया है। संदीप का एक आडियो वायरल हुआ था। जिससे पता चलता हैं कि पुलिस के आला अफसर कितने गैर जिम्मेदार और संवेदनहीन हो गए है। संदीप ने हाल पूछने वाले अपने साथी को बताया कि अब तक आफिस से भी उसका हाल पूछने के लिए फोन तक नहीं आया।
“जिस मैडम मोनिका भारद्वाज के लिए इतना पिटा उस मैडम को तो यह भनक भी नहीं कि उसके आपरेटर को कितनी चोट लगी और कहां लगी है।”
संदीप ने बताया कि कुछ तो मैडम को बचाने के चक्कर में और कुछ अपनी पिस्तौल बचाने के चक्कर में पिटा। रोते-रोते संदीप ने बताया कि नौकरी से मन बिल्कुल उठ गया।
वहशी हुए वकील-
वकीलों ने जूतों, बेल्ट और लोहे की रॉड से इतनी बुरी तरह मारा कि उसके शरीर के अंग-अंग में दर्द हो रहा है। इसके अलावा अंदरुनी गुमचोट भी इतनी है कि बिस्तर पर पड़ा रोता रहता हूं। बेहोश होने के बाद भी वकील उसके मुंह पर जूते मारते रहे। संदीप के कंधे की हड्डी ,पसलियों में चोट लगी और सिर में भी टांके लगे। संदीप ने यह भी बताया कि अमित नामक सिपाही को भी न केवल बुरी तरह पीटा गया बल्कि उसकी पिस्तौल भी लूट ली गई।
संदीप ने आपा नहीं खोया।–
इतनी बुरी तरह पिटने के बावजूद संदीप ने अपना आपा नहीं खोया। वर्ना वह अपने बचाव में हमला करने वालों पर गोली भी चला सकता था। ऐसे हालात में उसके द्वारा गोली चलाने को जायज़ ही ठहराया जा सकता था। संदीप की बजाए कोई आम आदमी होता तो वह हमला करने वाले पर गोली चलाने में ज़रा भी देर नहीं करता। दूसरी ओर कानून के ज्ञाता कुछ ऐसे वकील है जिन्होंने मामूली-सी बात पर आपा खो दिया और कानून हाथ में लेकर बिरादरी को शर्मसार कर दिया।
मातहत बलि का बकरा-
इस मामले से एक बात यह भी पता चलती हैं कि पुलिसवालों के दिमाग में कहीं न कहीं यह डर है कि हिंसा और आगजनी करने वाले हमलावरों पर काबू पाने और आत्मरक्षा में गोली चलाने के पर्याप्त कारण होने के बावजूद भी अगर उन्होंने गोली चलाई तो आला अफसर उल्टा उनके खिलाफ कार्रवाई करेंगे। यह डर सही भी लगता है क्योंकि पुलिस अफ़सर ऐसा कुछ होते ही अपनी कुर्सी बचाने के लिए सबसे पहले मातहत को बलि का बकरा बनाते हैं।
इस वजह से वह वह बुरी तरह पिटने को मजबूर हो जाते हैं। पुलिस के हथियार को भी लुटने से बचाने के लिए अपनी जान ख़तरे में डाल देते हैं। इतनी बुरी तरह पिटने वाले पुलिस वालों का पता लेने अगर उसके आला अफसर भी नहीं जाते तो उसका दुःख तो बढ़ता ही हैं पूरे पुलिस बल का मनोबल भी गिरता हैं।
IPS संवदेनहीन-
पुलिस कमिश्नर अमूल्य पटनायक हो या डीसीपी मोनिका भारद्वाज या अन्य आईपीएस अफसर इस मामले से इन सबका ग़ैर ज़िम्मेदार और संवेदनहीन चेहरा उजागर हुआ है। जिस पुलिस बल के मुखिया और आईपीएस अफसरों में इतनी भी इंसानियत नहीं है वह उस पद बने रहने के बिल्कुल भी लायक़ नहीं है। कर्तव्य पालन करते हुए घायल हुए अपने मातहत पुलिस वालों का हाल जानने तक यह अफसर नहीं गए तो अंदाजा लगाया जा सकता हैं कि आम आदमी की पीड़ा को यह भला कैसे समझेंगे।
मोनिका भारद्वाज से बदसलूकी-
संदीप के आडियो से ही पता चलता हैं कि जिला पुलिस उपायुक्त मोनिका भारद्वाज के साथ वकीलों ने बहुत बदसलूकी की। संदीप ने बताया कि मोनिका भारद्वाज के साथ न केवल धक्का मुक्की की गई, कंधे से खींचा गया, खूब गंदी गंदी गालियां दी गई। जिला पुलिस के अतिरिक्त उपायुक्त हरेंद्र सिंह को गिरा गिरा कर बेल्ट से मारा गया।
सहपाठी ने मारा-
संदीप के अनुसार उसे सबसे पहला डंडा उस ओमकार ने मारा जो स्कूल-कालेज में उसका सहपाठी था। सहपाठी को बचाना तो दूर उस पर हमला कर उसने इंसानियत को शर्मसार किया।
आईपीएस अफसर ही डर गया तो समझो मर गई पुलिस –
आईपीएस अफसर आम आदमी से अपेक्षा करते हैं कि वह अपराध और अपराधियों से निपटने में पुलिस की मदद करें। लेकिन वह खुद अपराधियों के शिकार होने के बावजूद उनके खिलाफ शिकायत तक दर्ज कराने की हिम्मत नहीं दिखाते। डीसीपी मोनिका भारद्वाज से बदसलूकी की बात जगजाहिर हो गई। लेकिन मोनिका भारद्वाज ने वकीलों के खिलाफ एफआईआर तक दर्ज नहीं कराई। घटना के कई दिनों बाद डीसीपी मोनिका भारद्वाज ने मीडिया से कहा कि इस मामले में हाईकोर्ट ने न्यायिक जांच के आदेश दिए और वह वहां पर इस बारे में बताएंगी।
घटना दो नवंबर को हुई थी और न्यायिक जांच के आदेश तीन नवंबर को दिए गए हैं। पुलिस कमिश्नर अमूल्य पटनायक और डीसीपी मोनिका भारद्वाज क्या यह बता सकते हैं कि दो नवंबर से लेकर तीन नवंबर की सुबह तक पर्याप्त समय होने के बावजूद बदसलूकी के मामले की एफआईआर दर्ज क्यों नहीं की गई? आईपीएस जैसे ताकतवर पद पर मौजूद महिला द्वारा बदसलूकी की रिपोर्ट दर्ज न कराने से समाज में गलत संदेश जाता हैं। बदसलूकी की शिकार कमजोर आम महिला ऐसे में किसी ताकतवर आरोपी के खिलाफ रिपोर्ट दर्ज कराने की हिम्मत कैसे करेगी।
मातहत ही भाग जाएगा तो मारे जाओगे-
आईपीएस अफसरों को ध्यान रखना चाहिए कि जो मातहत तुमको बचाने के लिए अपनी जान ख़तरे में डाल सकता हैं। उसका तुम हाल भी नहीं पूछोगे तो एक दिन वहीं मातहत हिंसक भीड़ में तुमको अकेला छोड़ कर भाग जाएगा तो तुम्हारा क्या हश्र होगा।
कमिश्नर ही नही डीसीपी भी कसूरवार-
क्या पुलिस कमिश्नर बता सकते हैं कि साकेत कोर्ट में सिपाही की वकील द्वारा पिटाई के मामले में वह धृतराष्ट्र क्यों बन गए? वैसे इस मामले में कमिश्नर के अलावा दक्षिण जिला पुलिस उपायुक्त अतुल ठाकुर भी कसूरवार हैं। सिपाही की पिटाई का इतना मजबूत सबूत होने के बावजूद उन्होंने तुरंत रिपोर्ट दर्ज कर अपने कर्तव्य का पालन क्यों नहीं किया? अगर ऐसे मामले में भी पुलिस कमिश्नर के आदेश के बाद ही एफआईआर दर्ज की जानी है तो जिला पुलिस उपायुक्त के पद पर आईपीएस अफसरों को लगाने की जरूरत ही क्या है। मोनिका भारद्वाज को अपने साथ हुई बदसलूकी की रिपोर्ट तुरंत दर्ज करानी चाहिए थी। इस तरह सिपाही के साथ मारपीट की रिपोर्ट भी तुरंत दर्ज की जानी चाहिए थी। इन दोनों अफसरों को बिना डरे अपने कर्तव्य का पालन करना चाहिए था।
अमूल्य पटनायक का नाम इतिहास में दर्ज-
दिल्ली पुलिस का मुखिया इस समय एक ऐसा कमिश्नर है जो अब तक का सबसे कमजोर/ सुस्त/नाकारा कमिश्नर हैं। इस कमिश्नर के समय में सिपाही से लेकर आईपीएस तक पिटने लगे हैं। अपराध और अपराधियों पर अंकुश लगाने और दिल्ली वालों को सुरक्षित माहौल देने में तो कमिश्नर पहले ही फेल हो गया है। अमूल्य पटनायक को ऐसे कमिश्नर के रूप में याद किया जाएगा जिसके समय पुलिस वालों को इंसाफ के लिए पुलिस मुख्यालय पर प्रदर्शन करना पड़ा।
भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष सांसद मनोज तिवारी द्वारा उत्तर पूर्वी जिले के तत्कालीन पुलिस उपायुक्त अतुल ठाकुर की गिरेबान पकड़ने और अतिरिक्त पुलिस उपायुक्त राजेंद्र प्रसाद मीणा को धमकाने की घटना मीडिया के माध्यम से दुनिया ने देखी।उस मामले में भी एफआईआर दर्ज नहीं कराई गई।
पुलिस कमिश्नर अमूल्य पटनायक आंख मूंद कर बैठ गए। हालांकि इसके लिए आईपीएस अफसर भी दोषी हैं वह अपने साथ हुई बदसलूकी के मामले में कार्रवाई करने के लिए खुद सक्षम है फिर भी कार्रवाई के लिए पुलिस कमिश्नर का मुंह देखते रहते हैं।अफ़सोस की बात है कि आईपीएस अफसर अपने साथ हुई बदसलूकी की रिपोर्ट तक दर्ज कराने की हिम्मत नहीं करते। इन अफसरों को समझना चाहिए कि जब तुम अपने मामले में भी खुद एफआईआर दर्ज कराने की हिम्मत नहीं दिखाते तो कमिश्नर भला तुम्हारे लिए क्यों सोचेंगे। इसके साथ ही यह भी सच है कि जब संकर्षण होने के बावजूद कमिश्नर अपने मातहत अफसरों के लिए खुद कुछ नहीं करेगा तो भला गृहमंत्री क्यों परवाह करेंगे।
अगर डीसीपी, कमिश्नर अपने अपने कर्तव्य का बिना डरे ईमानदारी से पालन करते तब ही गृहमंत्री पर भी असर पड़ता हैं। लेकिन होता यह कि एस एच ओ से लेकर कमिश्नर तक सभी सिर्फ अपनी कुर्सी बचाने की कोशिश में रहते है। इस चक्कर में पुलिस का बंटाधार कर दिया गया। पुलिस कमिश्नर अमूल्य पटनायक को पुलिस का मनोबल गिराने वाले कमिश्नर के रूप में याद किया जाएगा।
कमिश्नर शर्म करो-
कमिश्नर को शर्म से आनी चाहिए कि जो काम उनको खुद पहले करना चाहिए था उसके लिए भी उप राज्यपाल को कहना पड़ा। उप राज्यपाल ने 5 नवंबर को पुलिस कमिश्नर से कहा कि घायल पुलिस वालों का मनोबल बढ़ाने और उनके परिजनों में विश्वास बहाली के लिए वरिष्ठ अफसर खुद उनके घर जाकर उनकी कुशलता की जानकारी लें। इसके बाद पुलिस कमिश्नर आदि घायलों से जाकर मिले।
आईपीएस की गुंडागर्दी–
दिल्ली में हालात इतने ख़राब हो गए हैं कि अपराधी ही नहीं नेता और वकील भी पुलिस अफसरों तक को पीट देते हैं। दूसरी ओर गुंडों की तरह आईपीएस इंस्पेक्टर को पीट देता है। नई दिल्ली जिला के तत्कालीन पुलिस उपायुक्त मधुर वर्मा ने इंस्पेक्टर कर्मवीर मलिक की पिटाई की। इंस्पेक्टर ने हिम्मत करके शिकायत भी की लेकिन उस पर कोई कार्रवाई नहीं की गई। यह सब देख कर कमिश्नर आंख बंद किए रहते है। कमिश्नर और ऐसे आईपीएस अफसर पुलिस पर ही नहीं बल्कि आईपीएस सेवा पर ही कलंक लगा रहे हैं।
इन सब की मुख्य वजह है पुलिस में व्याप्त भ्रष्टाचार और महत्वपूर्ण पदों पर नियुक्ति के लिए राज नेताओं के तलुए चाटना हैं। नेता आईपीएस को भी गुलाम की तरह ही समझते है। इसलिए नेता की आईपीएस अफसरों को धमकाने और गिरेबान पकड़ने की हिम्मत हो जाती हैं। बदसलूकी करने वाले नेता के खिलाफ कार्रवाई न करके पुलिस कमिश्नर और आईपीएस खुद यह साबित कर देते हैं कि वह नेता के गुलाम/ लठैत से ज्यादा कुछ भी नहीं है।
दूसरी ओर ऐसे आईपीएस भी होते हैं जो अपने मातहत को गुलाम की तरह समझते हैं मातहतों को जलील करते रहते हैं अब तो हद पार कर दी मातहतों को पिटने तक लगे हैं। दूसरी ओर थाना स्तर पर पुलिस वाले आम आदमी से सीधे मुंह बात तक नहीं करते और आम आदमी को पीट भी देते हैं। पुलिस में जबरदस्त भ्रष्टाचार के कारण ही पुलिस की छवि खराब है इसलिए पुलिस का इकबाल/ दबदबा भी खत्म हो गया है। आज़ आलम यह है कि आम आदमी में पुलिस का खौफ है और अपराधी बेख़ौफ़ हैं।